कविवर सम्भु का साहित्यक जीवन परिचय |

1 . जीवन परिचय :-

सम्भु हरियाणवी भक्ति काव्य परंपरा के सगुण भक्ति के सुपर्सिध संतकवि थे | उनका जन्म सन 1854 में हरियाणा के प्रमुख नगर चरखी दादरी में हुआ था | सम्भु जी के मन में बचपन से ही इश्वर के प्रति लगन थी | वे साधू संतो की संगती और सेवा में विशवास रखते थे | संतकवि सम्भु की रचनाये से तत्कालीन जींद के रजा रणजीत सिह बहुत परभावित थे | उन्होंने सम्भु जी को राजकवि की उपाधि से सम्मानित किया , किन्तु सम्भु जी के लिए एसी उपाधि का कोई महत्व नहीं था | वे तो इश्वर भक्ति में मगन थे , तथा आजीवन प्रभु की लीला का गान करते रहे | संगीत से उन्हें विशेष लगाव रहा है | इसलिए उनका सम्पूर्ण काव्य विभिन राग रागनियो पर आधारित है | लगभग 54 वर्ष की आयु में सन 1904 में इस नश्वर संसार को त्याग कर स्वर्गवासी हो गए |

2 . प्रमुख रचनाए :-

सगुण भक्त सम्भु भक्त होने के साथ साथ कवी भी थे | उन्होंने अनेक काव्य ग्रंथो की रचना की है | जोगन लीला , कृष्ण लीला , रुक्मणि मंगल , भजनमाला , आदि इनके प्रमुख ग्रन्थ है |

3 . काव्यगत विशेषताएँ :-

संत कवी सम्भु की काव्यगत विशेषताएँ  निमंलिखित है :-

(i)  बाल लीला वर्णन :-

सूरदास जी की तरह सम्भु जी ने भी श्री कृष्ण की बाल लीला का सजीव चित्रण किया है | उनके काव्य में श्री कृष्ण की विभीन क्रीडाओ , संस्कारों का वर्णन बड़े मनोयोग से किया गया है | बालको की आपसी सपर्धा , खेल , शिकायत आदि के अंत्यंत सुदर एव सजीव चित्रण किये गए है |उधारण बालक कृषण की चन्द्र खिलोने लेने की जिद का यह वर्णन देखिये –

                                      ” मेरा   सयाम   सलोना , मांगत चन्द्र   खिलौना |

                                                             सई   सांझ  से टेरत देया चन्द्र खिलौना लदे मेंया

                                        उझक उझक यु परे गोद से मानो मृग का छोना |”

माता यशोदा बालक कृष्ण  की जिद को देखत हुए दुल्हन लेकर देने का लालच देती है | बालक कृष्ण  फिर दुल्हन मांगने की जिद पर अड जाता है की मुझे अभी इसी समय दुल्हन चाहिए –

                                ” अरी   मैया   मोहि दुल्हन लादे , अब ही लूँगा हाल मंगा दे

                                                       दुल्हन      दुल्हन    टेर   श्याम ने     शुरू   किया   रे रोना

                          सुर श्याम भक्तन  हितकारी , नित्य नई लीला करत मुरारी

                                                     सम्भु    दास बलि     छल्यो श्याम    ने रूपधार    के बोना ||”

(ii) जीवन की असारता :-

कविवर सम्भु ने जीवंन की असारता को चरखे के माध्यम से व्यक्त किया है | मानव जीवन दिन दिन ऋण होता जाता है और अनत निष्कर्ष और व्यर्थ हो जाता है तब मनुष्य के पछतावा करने के अलावा कुछ नहीं बचता | इसलिए व्यक्ति को समय रहते चेत हो जाना चाहिए | और प्रभु भक्ति में ध्यान देना चाहिए | इस दस्टी से निमंलिखित पंकतिया देखते ही बनती है –

                                            ” अब यह चहत तार भी टूटयो ,कर मल मल फिर रोय |

                                                                चरखो    पाय सार नहीं जानी   , चित विषयन  लपटॉय |

                                           सम्भु  दास यतन  कहा करिये ,   दियो  जवारो   खोय ||”

 

(iii) इश्वर में आस्था :- 

कवी सम्भु की ईश्वर में एक सचे भक्त की भाँती पूरण आस्था व्यक्त हुई है | वे कहते है की मुझे प्रभु के उन चरणों पर भरोषा है , जिनमे गंगा यमुना का अधुभव् हुआ है , जो यम के बन्धनों से भी मोक्ष दिलाते है | उनके चरणों के छूने मात्र रेणुका और आहिल्या का कल्याण है , जिन चरणों को नारद , शारद , सदाशिव , ब्रहा , वेद आदि सभी भजते है | कवी सम्भु उसी इश्वर पर भरोशा करता हुआ उन पर बलिहारी जाता है |

                                               ” मोहि     उन   चरणन     का , रहत     भरोशा   भारी , 

                                                                        जिन चरण     को      रटें सदाशिव     ब्रहा वेद विचार |

                                                जिन चरणन   की सेवक लक्ष्मी , शेष सहस फण धारी | 

                                                                        सम्भुदास कछु   नृत्य कियो है , चरणन    के बलिहारी |”  

 

(iv) सव्पनवत जगत :- 

संतकवि सम्भु ने संसार को सवपन के सामान असथायी बताया है | यह संसार रात के सपने जेसा है , आँख खुलते ही जेसे सपने ख़तम हो जाते है इसी प्रकार संसार भी नश्वर व् मिथ्या है | भले ही कोई कोटि कल्पना करे की यह मेरा है यह तेरा है | वास्तविकता यह है की ना कुछ मेरा है ना तेरा सब नश्वर है | जेसे सुख में सब मित्र बन जाते है और खिले हुए फुल को भवरे अपना समझते है , किन्तु दुःख आने पर ना कोई मित्र पास आता है और ना ही फुल के मुरझा जाने पर कोई भवरा उसके पास फटकता है | यह सब संसार सवार्थ्मय है ; यथा –

                                                                   ” जग   मेला निस सव्पना जानो |

                                                                                      कोई     तेरा     तेरा   नहीं   मेरा , 

                                                                     जब लग कमल बिमल तब शोभा , 

                                                                                     जब    लग भंवर ही अपना जानो |”

 

(v) गेय तत्व :- 

कवी सम्भु के काव्यो में संगीत एव काव्यशास्त्र का समनव्य है | उन्होंने विभीन गायन शेलीयो का सफल प्रयोग किया है | गायन उनकी काव्य रचना का मूल केंद्र है | सम्पुरण काव्य विभीन गायन शेलीयो पर आधारित है | ठुमरी और ख्याल आदि बंदिशों के कारण ही उन्हें राजकवि की उपाधि प्रदान की गयी थी | उनके गेय पदों का यह उधारण देखिये –

                                               ” चरखे हे तेरो चालतो नाही , अब लचर पचर गयो होय |

                                                                                   चारो       हाले     खुटडी है ,   भयो     अंदेशो       मोय | 

                                                  तकलो  देख प्डो  बल भारी ,     चरमख  घस गई दोय |

                                                                                   टूटी  बिसो    फाकड़ी है ,      साबत    रही न     कोय ||”

 

4 . भाषा शेली :-

कवी सम्भु के काव्य की भाषा सरल , सहज एव भाव्नुकुल है | उन्होंने लोकभाषा को अपने काव्य का माध्यम बनाया है | कविवर सम्भु ने ब्रज की भाषा के सब्दो का भी अपने काव्य की भाषा में प्रयोग किया है | वस्तुत : दक्षिण हरियाणा के छेत्र अहिरवाल ( गुडगाव चरखी दादरी आदि के आस पास ) की जनभाषा के निकट की भाषा ही उनके काव्य की भाषा है | चित्रात्मकता उनके काव्य की भाषा की अन्य प्रमुख विशेषता है | उन्होंने कृषण बाल लीला के वर्णन में अनेक सजीव चीत्र अंकित किये है ; यथा –

                                                       ” मेरा  श्याम  सलोनो  , मांगत    चंदर   खिलौना | 

                                                                                      सई   सांझ से  टेरत देया चन्द्र खिलोनो लदे मेया 

                                                           उझक उझक यूँ परे गोद से मानो मृग का छोना |”

 

उपयुक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है की संतकवि सम्भु के काव्य का भाव पक्ष जितना विकशित एव व्यापक है , उसका कला पक्ष भी उतना ही समृध एव सशक्त है | उनके काव्यो के भाव पक्ष एव कला पक्ष का अत्यंत सुन्दर समनव्य है | 

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